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पहिली ते दहावी संपूर्ण अभ्यास

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सोमवार, १८ सप्टेंबर, २०२३

मैं श्यामपट्ट बोल रहा हूँ

 

             मैं श्यामपट्ट बोल रहा हूँ 



[ रूपरेखा : (1) जन्मदाता (2) इतिहास और रूप-परिवर्तन (3) कालेपन का रहस्य (4) शिक्षक-विद्यार्थियों के रिश्तों का साधन (5) ज्ञान-प्राप्ति और कमरे को कक्षा बनाने का श्रेय (6) शिक्षकों-विद्यार्थियों के प्रति आभारी (7) हार्दिक इच्छा (8) शिकायत और निष्कर्ष । ]

                    जी हाँ! मैं श्यामपट्ट बोल रहा हूँ। एक निपुण कारीगर ने मेरा निर्माण किया था। जब मैं बनकर तैयार हुआ, उस समय मेरा रूप अत्यंत आकर्षक था। हर शिक्षक मुझ पर लिखने के लिए आतुर रहता था। आखिर वह पुनीत घड़ी आ ही गई जब गणित के एक शिक्षक ने मोती के से चमकीले अक्षरों में गणित के सूत्र लिखकर मेरा जीवन सार्थक कर दिया। प्रतिदिन सुबह लिखे सुभाषितों ने मेरा गौरव और बढ़ा दिया है। 

                   मेरा इतिहास उतना ही पुराना है, जितना गुरु-शिष्य संबंधों का इतिहास। समय के परिवर्तन के साथ-साथ मेरा रूप और आकार भी बदलता गया। अब तो मैं रेत, सीमेंट, लकड़ी, प्लास्टिक, टिन तथा कपड़े के रूप में भी उपलब्ध हूँ। शुक्र है कि मेरे नाम के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। मेरे दो अभिन्न सहयोगी हैं - चाक और डस्टर।

                    मेरी श्यामता का रहस्य जानते हैं? मैं विद्यार्थियों के अज्ञान की कालिमा ग्रहण कर श्याम बना हूँ। मुझ पर अंकित दजले चमकदार अक्षर शिक्षकों के मस्तिष्क से निकले हुए ज्ञान के वे सूत्र हैं, जो विद्यार्थियों तक पहुँचकर उन्हें बुद्धिमान और विद्वान बनाते हैं। में शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच मधुर संबंध स्थापित करने का प्रमुख साधन हूँ। मेरे उपयोग से शिक्षक कई अनसुलझे मुद्दे सुलझाकर विद्यार्थियों को संतुष्ट करने में सफल होते हैं।

                 मैं सृष्टि के प्रारंभ से ही ज्ञान-प्राप्ति का आधार रहा हूँ। सभ्यता के विकास का आधार भी मैं ही हूँ। मेरा आधार पाकर ही आजतक ज्ञान विज्ञान की उन्नति हुई है। मेरे कारण ही कई विलक्षण प्रतिभाएँ उत्पन्न हुई, जिन्होंने समय समय पर अपने ज्ञान के आलोक से संसार को आलोकित किया है। मेरे बिना कक्षा सिर्फ कमरा होता है। मेरे ही कारण कमरे को कक्षा का गौरव मिलता है। यहाँ शिक्षक और विद्यार्थी आते हैं। यहाँ अध्ययन-अध्यापन का कार्य होता है। एक विद्यादान के स्थल का बोध होते ही पूरी कक्षा एक पुनीत भावना से भर उठती है। 

                  चाहे जो हो, मैं विद्यार्थियों और शिक्षकों का अत्यंत आभारी हूँ। इनके कारण हो मेरा अस्तित्व बना हुआ है। इन्हीं के कारण आज तक मुझे मान सम्मान और गौरव मिलता रहा है। इसलिए इनकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है। मैं इनके लिए सदा उपयोगी बना रहूँगा। ईमानदारीपूर्वक अपनी उपयोगिता का निर्वाह कर मैं इनके काम आता रहूँ, बस यहाँ मेरी कामना है। 

                 मुझे तब बहुत दुःख होता है, जब शिक्षक मध्यावकाश में चले जाते हैं और विद्यार्थी मेरा दुरुपयोग करते हैं। ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दें।

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